तुम और मैं दिखने लगे हो जब से तुम ही हर सूँ गोया ख़ुद को भूलने सा लगा हूँ । कभी कटार और कभी कतार से गुज़र कर हर अक़्स में तेरा ही रुख़ पाने लगा हूँ । लफ़्ज़ों के जादुई गिरह खोलते हो ऐसे, सन्नाटे में अपनी चीख़ दोहराने लगा हूँ । वक़्त का आग़ाज़ है ये, तो फिर यही सही अपने ‘मन की बात’ को ताह देने लगा हूँ । तेरा तिलमिलाना, और यूँ व्यंग्य से मुस्कुराना ख़ुद के होने पर कुछ इतराने लगा हूँ । कभी झाड़ू, कभी चरख़ा, और कभी सेल्फ़ी तेरी सियासत का जनाज़ा उठाने लगा हूँ ।
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