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Showing posts from October 29, 2017

सिनमाघरों में राष्ट्रीय गान क्यूँ?

--> (थोड़े बदलाव के साथ, ये लेख द वायर हिंदी में छपा है).  अनुपम खेर साहेब को पत्र: अनुपम खेर साहेब जब संगीनता से कोई बात कहते है तोह उसपर ध्यान देना चाहिए. वो एक मंझे कलाकार हैं और एक no-nonsense देशभक्त भी. जिस शक्स ने दिवंगत अमरीश पूरी की बोलती बंद कर दी थी, उसके लफ़्ज़ों के वज़न में कुछ भार तो ज़रूर होगा. याद आता है दिदिऐलजे का वो अंत की तरफ़ का दृश्य जहाँ अपने बेटे के बारे में वो अपशब्द सहन ना कर सके थे. ‘बस...बस...स...स...स... मेरा बेटा मेरा ग़ुरूर है, मेरे ग़ुरूर को मत ललकारिए’. पंजाब के उस छोटे से गाँव की हवेली के कमरे में और साथ में देश भर के सिनमाघरों में गूँज गयी थी ये बात. इस बार भी बात सिनमाघरों की ही है लेकिन ललकार बेटे के लिए नही बल्कि देश के लिए है. पूछते हैं वों कि भला क्या आपत्ति है लोगों को कि वे राष्ट्रगान के लिए बावन सेकंड के लिए भी खड़े नही हो सकते. जब लोग सिनमाघरों में जाने के लिए बाहर कतार में लग सकते हैं, रेस्तराँ में घुसने के लिए खड़े इंतेज़ार कर सकते हैं, तोह सिनेमा चालू होने के पहले बजने वाले राष्ट्रीय गान में खड़े क्यूँ नही हो