एक
आवाज़ उठी है,
कि
रेत को छोड़ कर
आ
जाऊँ शहर में,
आ
गया तो कुछ यूँ होगा,
चारों
ओर स्टील की छोटी रेलिंग
और
लोहे की ज़ंजीरों के बीच
घिरा
रहूँगा,
शायद
गेंदें के कुछ फूल भी इर्द-गिर्द होंगे
२६
और १५ को वो कुछ तो मेरे नाम भी होंगे,
कहते
हैं कि याद दिलावूँगा मैं उन्हें कुछ
जो ख़ुद
पढ़ते-लिखते हैं समझावूँगा उन्हें कुछ,
सच
शायद ये है
कि
धूप और बारिश में अकेला ही,
एक एनर्जी
सेवर लैम्प के नीचे
पड़ा
रहूँगा,
कुछ
कुत्ते भी वही आस-पास सोए रहेंगे
लाए
तो हैं मुझे मेरी नाद की तर्ज़ पर
अफ़सोस,
झूठ है ये,
मैं
तो बस ख़ामोश सुना करूँगा
वो
तो लाने वाले हैं,
जो मेरे
नाम पर बोला करेंगे।
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