टुकड़े-टुकड़े नींद से सुबह की फिर,
छन के उतरा जो नशा,
चाह की पियाली में,
ख़्वाइशें बर्लिन की वाल बन गयी,
रात कल थोड़ी बियर पी ली,
...
बाजरे के खेत से जो कौवा उड़ा,
औंधे मुँह तकिये पे चाँद आ गिरा,
कौवे के सुरीले सुर में फ़ोन बज उठा, और,
बल्ब लैम्प का, चाँद बन के खिल गया,
रात कल थोड़ी बियर पी ली,
...
जाम का नशा था वो या जाम था नशे में,
एक सौ सोलह साल का तिल भी था मज़े में,
जिगर की आग में सुलग रही थी बीड़ियाँ, और,
ज़्युरिक की बाहों में पटना की थी मस्तियाँ,
रात कल थोड़ी बियर पी ली,
...
घूँट दो बची है अब चाह की पियाली में,
ख़ाली हाथ ना सुबह है, ना ख़्याली शाम है,
गीत को भी टेन्शन है, और फ़जूल क्या कहें, बस,
ग़ालिब के ख़्वाबों के 'गुलज़ार' हम सभी.
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