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Showing posts from 2017

सिनमाघरों में राष्ट्रीय गान क्यूँ?

--> (थोड़े बदलाव के साथ, ये लेख द वायर हिंदी में छपा है).  अनुपम खेर साहेब को पत्र: अनुपम खेर साहेब जब संगीनता से कोई बात कहते है तोह उसपर ध्यान देना चाहिए. वो एक मंझे कलाकार हैं और एक no-nonsense देशभक्त भी. जिस शक्स ने दिवंगत अमरीश पूरी की बोलती बंद कर दी थी, उसके लफ़्ज़ों के वज़न में कुछ भार तो ज़रूर होगा. याद आता है दिदिऐलजे का वो अंत की तरफ़ का दृश्य जहाँ अपने बेटे के बारे में वो अपशब्द सहन ना कर सके थे. ‘बस...बस...स...स...स... मेरा बेटा मेरा ग़ुरूर है, मेरे ग़ुरूर को मत ललकारिए’. पंजाब के उस छोटे से गाँव की हवेली के कमरे में और साथ में देश भर के सिनमाघरों में गूँज गयी थी ये बात. इस बार भी बात सिनमाघरों की ही है लेकिन ललकार बेटे के लिए नही बल्कि देश के लिए है. पूछते हैं वों कि भला क्या आपत्ति है लोगों को कि वे राष्ट्रगान के लिए बावन सेकंड के लिए भी खड़े नही हो सकते. जब लोग सिनमाघरों में जाने के लिए बाहर कतार में लग सकते हैं, रेस्तराँ में घुसने के लिए खड़े इंतेज़ार कर सकते हैं, तोह सिनेमा चालू होने के पहले बजने वाले राष्ट्रीय गान में खड़े क्यूँ नही...

टैंक नामा

एक आवाज़ उठी है, कि रेत को छोड़ कर आ जाऊँ शहर में, आ गया तो कुछ यूँ होगा, चारों ओर स्टील की छोटी रेलिंग और लोहे की ज़ंजीरों के बीच घिरा रहूँगा, शायद गेंदें के कुछ फूल भी इर्द-गिर्द होंगे २६ और १५ को वो कुछ तो मेरे नाम भी होंगे, कहते हैं कि याद दिलावूँगा मैं उन्हें कुछ जो ख़ुद पढ़ते-लिखते हैं समझावूँगा उन्हें कुछ, सच शायद ये है कि धूप और बारिश में अकेला ही, एक एनर्जी सेवर लैम्प के नीचे पड़ा रहूँगा, कुछ कुत्ते भी वही आस-पास सोए रहेंगे लाए तो हैं मुझे मेरी नाद की तर्ज़ पर अफ़सोस, झूठ है ये, मैं तो बस ख़ामोश सुना करूँगा वो तो लाने वाले हैं, जो मेरे नाम पर बोला करेंगे।

तुम और मैं

तुम और मैं दिखने लगे हो जब से तुम ही हर सूँ गोया ख़ुद को भूलने सा लगा हूँ । कभी कटार और कभी कतार से गुज़र कर हर अक़्स में तेरा ही रुख़ पाने लगा हूँ । लफ़्ज़ों के जादुई गिरह खोलते हो ऐसे, सन्नाटे में अपनी चीख़ दोहराने लगा हूँ । वक़्त का आग़ाज़ है ये, तो फिर यही सही अपने ‘मन की बात’ को ताह देने लगा हूँ । तेरा तिलमिलाना, और यूँ व्यंग्य से मुस्कुराना ख़ुद के होने पर कुछ इतराने लगा हूँ । कभी झाड़ू, कभी चरख़ा, और कभी सेल्फ़ी तेरी सियासत का जनाज़ा उठाने लगा हूँ ।

दास्ताँ

दास्ताँ दर्द की ये दास्ताँ, कह गयी कुछ तो मगर रह गयी कुछ अनकही देर तक बैठी रही, सुन रही ख़ामोशियाँ रात यूँ जाती रही लफ़्ज़ों के टुकड़ों के गुच्छे की थैली में रक्खी थी तुमने कहीं संग-ए-सितम की अपनी कहानी, और एक फ़साना वहीं लफ़्ज़ों के टुकड़ें बिख़रे ज़मीं पर सुनाए सितम की कहानी नयी खोए, खोए निशाँ हैं तुम्हारे, सूखी, सूखी पड़ी तेरी यादें भूला, भूला है तुमको ज़माना, फिर भी मिट ना सका ये एक फ़साना सुनाए जो ग़म की तेरी कहानी दोहरे ज़माने की दोहरी जुबानी