लोमड़ी-गीदड़ की शादी, कस्तूरी मृग की सचाई, और ‘सत्तर साल’ का भूत
इस लेख का छोटा version द वायर हिंदी में छपा है.
सत्तर साल का कांग्रेस शाशन और उसमें कुछ भी अच्छा ना होना एक ऐसा सच बन गया है जैसे हल्की धूप में इंद्रधनुष निकलने पर गीदड़ और लोमड़ी की शादी के होने का सच. और लोग उस कस्तूरी मृग की तरह इस दावे के पीछे इंद्रधनुष के अंत की ओर भाग रहे हैं जो ख़ुद अपने ही नाभि से आती हुवी सुगंध के स्रोत को नहीं जान पाता.
आप अपने खुद के कस्तूरी-विवेक को भूल कर बैठ गए हैं. आपकी सच्चाई आपके अन्दर ही है, लेकिन दूसरे के झूठ को सच मान लेने की तृष्णा आपको घर कर गयी है.
उदाहरण स्वरूप, भाजपा हमेशा से ये कहती आयी है कि अगर जम्मू-कश्मीर में उनका शाशन होता तोह वो ‘कश्मीर का मुद्दा’ कबका सुलझा देते. मुद्दा है भी क्या, ये बात फिर कभी बाद में करेंगे. साथ में, ये भी दावा रहता है कि अगर केंद्र में वो रहते तो सब कुछ थोक-पीट कर अब तक शांत कर दिए होते.
ठीक है, थोड़ा निरक्षण करिये इस दावे का.
सत्तर साल के भूत ने आपके जहन से ये मिटा दिया है कि कुल मिलाकर दस साल से ज़्यादा अब आपकी भी लोकप्रिय पार्टी ने भी केंद्र पर राज कर लिया है. इतनी बहुमत वाली सरकार को ‘राज’ ही कहेंगे. पहले राजा सूबा में ढोल पिटवा कर अपनी बात प्रजा को बतलाया करता था. अब वो भी करने का ज़रूरत नहीं है. ‘मन की बात’ तकनीक की लहरों पर दौड़ती हुई आपके घर पहुँच जाती है. डायरेक्ट ट्रान्स्फ़र की तरह. बहरहाल, पंद्रह लाख नहीं आया जो आपसे वायदा किया गया था. लेकिन, आप उसको भूल गए हैं.
अदीम हाशीमी का एक शेर है:
याद करके और भी तकलीफ़ होती थी ‘अदीम’,
भूल जाने के सिवा अब कोई चारा ना था.
लिहाज़ा, पंद्रह साल भी आसानी से पूरे हो जाएँगे. और अगर उसके बाद चुनाव हुवा तो आप चौबारा भी सत्ता में आ सकते हैं. लोगों ने आप पर इतना विश्वास किया है कि आपने उन्हें बोल दिया है कि कस्तूरी के स्रोत सिर्फ़ आप ही आप हैं. और जनता मंत्रमुग्ध होकर आपके पीछे दौड़ रही है - गीता के कृष्ण की तरह आपमें समा जाने के लिए. वो पूछ नहीं रही कि दस वर्ष से ज़्यादा के काल में आपने कौन से ऐसे ठोस क़दम (concrete tangible steps) उठाए हैं जिस्से ‘सत्तर साल’ का भूत भाग ही नहीं रहा है. ये भूत आपको हर जगह दिखायी देता है क्यूँकि आप यही देखना और दिखलाना चाहते हैं.
राज्यों की बात करते हैं. जम्मू-कश्मीर में पिछले पांच साल से आपकी पार्टी और सरकार सत्ता में हैं. पहले गठबंधन में थी और लगभग एक साल से बिल्कुल सीधे तौर पर राज्यपाल के द्वारा। लिहाज़ा, पीचले पाँच साल से केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा ही सरकार में है. आपने क्या-क्या सकारात्मक बदलाव देखा है कश्मीर की हालात में?
यहाँ सकारात्मक का परिभाषा लक्षित कर दूँ – वैसे क़दम जो स्थिति को सुधारने के लिए उठाए गए हों. जो दूरी को मिटाने के लिए उठाए गए हों. जो जलन पर मरहम लगाने के लिए उठाए गए हों. जिनका आप पर काम विश्वास है उनके विश्वास को जीतने के लिए उठाए गए हों. ‘सबका विश्वास’ वैसे तो पहले आपके नारे में नहीं था. अभी नया-नया आया है. फिर भी, ये मान कर चलना चाहिए कि आपने नारा भले ना बनाया हो, लेकिन नियत में ये बात ज़रूर होगी.
इतना तो आप भी मानेंगे कि ये सारी बातें सकारात्मक कदम कहलाने योग्य हैं. अगर national-antinational की तरह आपने अपना कोई नयी परिभाषा बना ली है, तो अलग बात है.
पीछले सप्ताह राज्य सभा में गृह मंत्री ने कहा, 70 साल से जम्मू-कश्मीर राज्य को वहाँ के तीन सियासी परिवारों ने दुहा है. तो क्या मान लिया जाए कि आपके दस साल केंद्र और पाँच साल राज्य में रहने पर भी यही हुवा? आप कुछ कर नहीं पाए? कुछ सकारात्मक करना चाहते थे या बस यूँही राजनीति चल रही थी?
वैसे आपने किया था 2015 में. आपने PDP के साथ हाथ मिलाया था. अगर आज वो आपके अनुसार अस्पृश्य वंशवाद द्वारा उपजी भ्र्स्ट्टाचार की राजनीति का प्रतीक है तो क्या उनसे हाथ मिलाने के पहिले उन्हें गंगाजल से पवित्र कर लिया था? आजकल आपके साथ जो भी मिलता है स्वच्छ ही हो जाता है. बंगाल में स्वच्छता अभियान ज़ोर पर है.
राजनीति में जैसा सब करते हैं, वैसा आपने भी किया. इसके लिए आप अलग से दोषी नहीं हैं. एक सोची समझी राजनीतिक सूझबूझ के तहत हाथ मिलाया, कि चलो अभी मिला लेते हैं, सत्ता मिल रहा है, बाद में बदल जाएँगे. ये काम कांग्रेस ने पहले किया है, उन्हीं सत्तर सालों में जिन्हें आप बदलना चाहते हैं. यही काम अब आप भी कर रहे हैं. नया बदलाव क्या है ये बात अब कोई पूछता भी नहीं.
वैसे अंतर इतना है कि जब पहले सरकारें सवालों के कठघरों में घड़ी होतीं थीं. आप ख़ुद ये करते थे. आप जंतर-मंतर में जमा होते थे. लेकिन अब की सरकार को लेकर आप ज़्यादातर चुप ही नज़र आते हैं. अपने आराध्य के सामने आपकी यदास्त धूँधली पड़ जाती है. उनका वाणी और चेहरा गूँजता और चमकता है. रेडीओ और टीवी पर. अख़बारों के इस्तिहारों में. दूरदर्शन के सीधे प्रसारण में. वो टीवी के स्क्रीन में विलय हो जाते हैं, और आप उनमें.
आपने इस बात को भुला दिया कि 2014 से सितम्बर 2018 के दौरान सरकार ने 4916.61 कडोड़ रुपए पब्लिसिटी पर ख़र्च किए. पाँच साल में उतना ख़र्च किया गया जितना मनमोहन सिंह की सरकार ने दस सालों में किया था. फिर भी सत्तर साल का भूत विराजमान है. उन पर और आप पर भी.
‘बेटी बचाओ’ उनका प्रिय और भावनात्मक जुड़ाव वाला प्रोग्राम था. 2014-15 से 2018-19 के बीच, 56 प्रतिशत राशि इस्तहार पर ख़र्च किया गया. 25 प्रतिशत से कम राज्यों और जिलों को दी गयी. 19 प्रतिशत राशि उपयोग में लायी ही नहीं गयी.
इन तथ्यों के बाद जब आप ये कहते हैं कि धारा 370 की वजह से जम्मू-कश्मीर का विकास नही हो पाया, तो ये लोमड़ी-गीदड़ की शादी के समान वाली बात लगती है। विकास का इरादा है या विकास किसी और चीज़ का बहाना है?
आपको कहा गया कि धारा 370 को हटाने से आतंकवाद जड़ से दूर हो जाएगा. कुछ ऐसा ही आपने सुना था 8 नोवेम्बर 2016 की रात में. आपने साँस रोक कर सीधा प्रसारण देखा था और नोटेबंदी के चार फ़ायदों के बारे में सुना था. उनमें से एक था आतंकवाद का कमर तोड़ना. 100 से अधिक लोगों ने पैसा निकालने की कतार में खड़े होकर दम तोड़ दिए.
कमर किसका टूटा ये ख़ुद देखिए.
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2014 में जम्मू-कश्मीर में 222 आतंकी घटनाएँ हुईं थीं. 2018 में 614.
क्यूँ बढ़ी, आपने पूछा? क्या आपने सरकार से appraisal और course correction की गुहार लगायी? ये दो शब्द सुना है कि corporate जगत में ख़ूब इस्तेमाल होता है. हमने सोचा, हम भी कर लें, governance के लिए.
अभी जश्न का माहौल है. Whatsapp यूनिवर्सिटी और ट्विटर स्टेडीयम पर. आज विलय सम्पूर्ण हुवा. ऐतिहासिक भूल का सुधार हुवा. कश्मीर का भारत में एकीकरण हुवा.
आप दो मिनट इस बात को सोचिए. कश्मीर आपके लिए है क्या. एक ज़मीन का टुकड़ा या लोगों की बस्ती? आपको वो ज़मीन प्यारी है – अधिकांश भारतवासी को प्यारी है. लेकिन क्या आपको लोग भी प्यारे हैं? आपसे अनुरोध है कि इस दो मिनट को अनुपम खेर की logic से अलग रखिए. जब ‘लोग’ के बारे में सोचें तो सिर्फ़ एक बिरादरी के बारे में ना सोचें.
खेर साहेब एकतरफ़ा बात करते हैं – आप दोतरफ़ा सोचने में बिलकुल सक्षम हैं. आप जब अपने प्रिय पार्टी की वकालत करते हैं तो कांग्रेसी ‘भूत’ और भारतीय ‘भविष्य’ दोनों की बात करते हैं. इसीलिए, एकतरफ़ा ना रहें इस मुद्दे पर, किसी भी मुद्दे पर.
अगर सरकार इतनी भी उदार और निश्चल भावना से ये काम करती तो वो चोरी छुपे, निर्वाचित लोगों को गिरिफ़तार कर, कर्फ़्यू लगवा कर, इंटर्नेट और अन्य सुविधाओं को स्थगित कर, ये काम नहीं करती. वहाँ के समवैधानिक ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे गवर्नर साहब ने प्रेस से कहा था कुछ दिन पहले, कि समविधान की धाराएँ नहीं बदली जाएँगी. जो ऐसा बोल रहे हैं, उन्होंने कहा था, वो अफ़वाह फैला रहे हैं.
क्या ये बात आपको खटकती नहीं कि एक गवर्नर जैसे समविधैनिक पद से मिथ्या बोली गयी. और अगर गवर्नर साहेब को भी ये बात नहीं पता थी, तो और भी खटकना चाहिए कि कैसे इस सरकार में सिर्फ़ दो या तीन लोग हर बात का निर्णय करते हैं.
सरकार अब स्मवाद से परे है.
एक तरफ़ आप कहते हैं कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है, तो उस लिहाज़ से इस बदलाव की परिक्रिया में कश्मीरी भी अभिन्न होने चाहिए थे. क्या आपने उनसे बात किया? क्या आपने उनसे उनका राय माँगा, पूछा? उनके चुने हुवे प्रतिनिधि कहाँ है, ये बात से आपको कोई दरकार नहीं है, लेकिन ज़मीन से है.
नीयत चीज़ों को करने के तरीक़े में समाहित होता है, सिर्फ़ भाषण में नहीं.
आप यूपी, बिहार, बंगाल और अन्य जगह बैठे TV देखकर ख़ुश हो रहे हैं कि आज सम्पूर्ण विलय हो गया. जिसका विलय हुवा उसे ये तक पता नहीं चला कि उससे उसका ‘राज्य’ का दर्जा ले लिया गया.
कल को अगर आपके घरों के दीवालों और उनके रंगों को बदल दिया जाए, बिना आपसे पूछे हुवे, आप क्या करेंगे?
आप कहिएगा कि केंद्र ने समय-समय पर नए राज्य बनाए हैं, और उनका सीमा निर्धारण किया है. ठीक बात है. झारखंड, छत्तीसगढ़ वैगेरह बनाए गए थे. लेकिन, वो सारे के सारे राज्य एक लम्बे अरसे के स्थानीय माँग से उभर कर आए थे. राजनीति की रोटी भी सेंकी गयी थी, लेकिन माँग की भी एक कहानी थी. उसका भी इतिहास था.
क्या जम्मू-कश्मीर में ये लोकल माँग थी की राज्य का दर्जा वापिस लेकर उसे Union Territory बना दिया जाए? लद्धाक को legislative assembly भी नहीं मिली. इसका मतलब, वो अपने हक़ से अपने उमीदवार भी नहीं चुन सकते. जो देश विश्व गुरु बनना चाहता है वहाँ के एक हिस्से में प्रतिनिधि लोकतंत्र को ख़त्म कर दिया गया.
आपने कश्मीर शब्द सुना, और जश्न मनाने लग गए. विकास के नाम पर आप तानाशाह को बढ़ावा दे रहे हैं. लेकिन ये बात आपको खटकती नहीं.
आप ख़ुश हैं क्यूँकि आपको muscular सर्जिकल स्ट्राइक वाली राजनीति देखने, सुनने, भूलने, और भुलाने की आदत पड़ गयी है. सेल्फ़ी और टैग से अब राजनीति होती है. विज़न, लक्ष्य और संस्थाओं से नहीं.
आप भूल गए हैं ये पूछना कि पहले के कामों का क्या नतीजा निकला. उन कामों पर सरकार बोलती क्या है, और वास्तविकता क्या है. पैसा कहाँ और किस चीज़ पर ख़र्च होता है. कुछ साल पहले तक आप सरकारों को आँकते थे. अब आप सरकार पर सिर्फ़ विश्वास करते हैं.
नोटबंदी की अब बात भी नहीं होती. आपने तरीक़ा ढूँढ लिया है चुप रहने का, चुप करवाने का.
कुछ लोग बहरहाल यूँही बेवजह बोलते रहेंगे आपको आपकी कस्तूरी मृग की स्थिति याद दिलाने के लिए. कम से कम उसका भूत उतार दीजिए, सत्तर का ना भी उतरे तो सही.
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